Tuesday, March 31, 2009

आप सभी का महफिले ग़ज़ल शिक्षक की कक्षाओं में स्‍वागत है । मैं प्रयास करूंगा कि सीधे सादे तरीके से आपको वो सिखा सकूं जिसको मुश्किल माना जाता है ।

महफिले गज़ल शिक्षक ये ही नाम दिया गया है मुझे और मैं प्रयास करूंगा कि शिक्षण की मर्यादा पर पूरा उतर सकूं । मैं ये तो नहीं कहता कि मैं ग़ज़ल का कोई विशेषज्ञ हूं फिर भी जितना भी जानता हूं उसको आप सब के साथ बांटना चाहूंगा । मेरा ये प्रयास उन लोगों के लिये है जो सीखने की प्रक्रिया में हैं उन लोगों के लिये नहीं जो ग़ज़ल के अच्‍छे जान‍कार हैं । वे लोग तो मुझे बता सकते हैं कि मैं कहां ग़लती कर रहा हूं । क्‍योंकि मैं वास्‍तव में एक प्रयास कर रहा हूं कि वे लोग जो हिंदी भाषी हैं वे भी ग़ज़ल की ओर आएं । इसलिये क्‍योंकि मशहूर शायर बशीर बद्र साहब ने ख़ुद कहा है कि ग़ज़ल का अगला मीर या गा़लिब अब हिंदी से ही आएगा । और आजकल मुशायरों में भी हिंदी के शब्‍दों वाली ग़ज़ल को ही ज्‍़यादा पसंद किया जाता है । फारसी के मोटे मोटे शब्‍द अब लोगों को समझ में ही नहीं आते हैं तो दाद कहां से दें । जैसे बशीर बद्र जी का एक शेर है ' रूप देश की कलियों पनघटों की सांवरियों कुछ ख़बर भी है तुमको, हम तुम्‍हारे गांव में प्‍यासे प्‍यासे आये थ्‍ो प्‍यासे प्‍यासे जाते हैं ' ये पूरा का पूरा शेर ही हिंदी मैं है मगर पूरे वज़न में है ये बहरे मुक्‍़तजब का शेर है ।
तो अब ये ही होगा आने वाला समय हिंदुस्‍तानी भाषा का है अब न कुंतल श्‍यामल चलना है और न ही शबो रोज़ो माहो साल चलना है अब तो वही कविता पसंद की जाएगी जो आम आदमी का भाषा में बात करेगी । मुनव्‍वर राना और बशीर बद्र जैसे शायरों को उर्दू अदब में बहुत अच्‍छा मुकाम नहीं दिया जाता है मगर जनता के दिलों में तो उनका आला मुकाम है । इसलिये क्‍योंकि उन्‍होने ग़ज़ल को उस भाषा में कहा जिस भाषा में जनता समझ पाए । मेरे विचार से कविता में भाव और शब्‍द के साथ व्‍याकरण भी हो तभी वो संपूर्ण होती है और फिर रह जाता है केवल उसका प्रस्‍तुतिकरण जो कवि या शाइर पर निर्भर करता है । निदा फाज़ली जैसे लोग हिंदी में ही कह कर आज इतने मक़बूल हो गये हैं । वो लोग जो ग़ज़ल कहना चाहते हैं वो समझ लें कि कोई ज़रूरी नहीं है उर्दू और फारसी के शब्‍द रखना आप तो उस भाषा में कहें जिस में आम हिन्‍दुस्‍तानी बात करता है । मशहूर शायर कै़फ़ भोपाली की बेटी परवीन क़ैफ़ मुशायरों में इन पंक्तियों पर काफी दाद पाती हैं ' मिलने को तो मिल आएं हम उनसे अभी जाकर, जाने में मगर कितने पैसे भी तो लगते हैं ' कहीं कोई कठिन शब्‍द नहीं हैं जो है वो केवल एक आम भाषा है । एक दो कक्षाओं तक तो मैं ग़ज़ल लिखने के लिये आपको तैयार करनी की भूमिका बांधूंगा फिर जब आप तैयार हो जाएंगे तो फिर मैं आपकी क्‍लास प्रारंभ कर दूंगा ।
बात व्‍याकरण की हिंदी में अरूज़ जिसका मतलब संस्‍कृत अरूज़ से होता है, जिसे छंद कहा गया और जिसको लेकर पिंगल शास्‍त्र की रचना की गई जिसमें हिंदी के छंदों का पूरा व्‍याकरण है । उर्दू में उसे अरूज़ कहा गया । ग़ज़ल में चूंकि बातचीत करने का लहज़ा होता है इसलिये ये छंद की तुलना में ज्‍़यादा लोकप्रिय हो गई । पिंगल और छन्‍द के क़ायदे बहुत मुश्किल होने के कारण और मात्राओं में जोड़ घट को संभलना थोड़ा मुश्‍िकल होने के कारण हिंदी में भी उर्दू का अरूज़ चल पड़ा । अरबी अरूज़ के पितामह अल्‍लामा ख़लील बिन अहमद थे जो 1300 साल पहले हुए थे यानि 8 वीं सदी में । वे यूनानी ज़बान को जानते थे अत: उन्‍होंने अरबी अरूज़ की ईज़ाद में यूनानी छंद शास्‍त्र की मदद ली हालंकि संस्‍कृत पिंगल तो उनकी पैदाइश के भी पहले का है और वे उसके जानकार भी थे पर आसान होने के कारण उन्‍होंने यूनानी अरज़ल की मदद ली । अलबरूनी ने अपनी किताब किताबुल हिंद में लिखा है कि पद बनाने का यूनानी तरीका भी वही है जो हिन्‍दुस्‍तानियों का है हिंदी में भी दो हिस्‍से होते हैं जिनको पद कहा जाता है । यूनानी में पदों को रजल कहा जाता है । वही पद ग़ज़ल में भी हैं ।
एक क़ामयाब शायर होने के लिये चार चीज़ें ज़रूरी हैं विचार, शब्‍द, व्‍याकरण और प्रस्‍तुतिकरण । विचार तभी होंगें जब आप अपने समय की नब्‍ज़ से परिचित होंगें । मेरे गुरूवर कहते हैं कि क्‍यों नहीं देखो राखी सावंत को, देखो और उसमें आज के दौर की नब्‍ज़ टटोलो कि समाज की दिशा क्‍या है । आज हम तुलसीदास की तरह ' तुलसी अब का होंइगे नर के मनसबदार' कह कर बचनहीं सकते कवि होने के नाते हमारी जि़म्‍मेदारी है कि हम समाज पर नज़र रखें । शब्‍द दूसरी चीज़ है जिसकी ज़रूरत है शब्‍द तभी आते हैं जब अध्‍ययन होता है, कहीं पढ़ा था मैंने कि यदि आप एक पेज लिखना चाहते हो तो पहले 1000 पेज पढ़ो तब आप में एक पेज लिख्‍ने की बात आएगी । तो शब्‍द जो शब्‍दकोश से आते हैं उनका शब्‍दकोश तभी समृद्ध होगा जब आप पढ़ेंगें । यहां एक बात कह देना चाहता हूं कि श्‍ब्‍द ना तो उर्दू के, फारसी के या संस्‍कृत के हों जिनका अर्थ सुनने वाले को डिक्‍शनरी में ढूंढना पड़े, वे ही शब्‍द लें जो आम आदमी के समझ में आ जाए क्‍योंकि कविता उसी के लिये तो लिखी जा रही हैं । जैसे ' सर झुकाओगे तो पत्‍थर देवता हो जाएगा, इतना मत चाहो उसे वो बेवफा हो जाएगा' इसमें सब कुछ वही है जो आम आदमी का है । बात यूं लग रही है कि प्रेमिका की हो रही है पर सोचो तो बात तो राजनीति पर कटाक्ष भी कर रही है , राजनीति को ध्‍यान में रखकर ये शेर फि़र से देखें । तीसरी चीज़ है व्‍याकरण जिसको उर्दू में अरूज़ कहा जाता है वो भी ज़रूरी है क्‍योंकि जब तक रिदम नहीं होती तब तक तो बात भी मज़ा नहीं देती है तो अरूज़ बिना कविता प्रभाव पैदा नहीं करती । निराला की कविता 'वो तोड़ती पत्‍थर' नई कविता है जो छंदमुक्‍त होती है पर छंदमुक्‍त होने के बाद भी उसमें रिदम है ये रिदम पदा होता है व्‍याकरण से अरूज़ से जो आपको यहां सीखने को मिलेगा । चौंथी चीज़ है प्रस्‍तुतिकरण ये तो आपके अंदर ही होता है किस तरह से आप अपनी कविता या गज़ल को पढ़ते हैं वो आप पर ही निर्भर है । वैसे जब ग़ज़ल अरूज़ के हिसाब से होती है तो उसमें लय स्‍वयं ही आ जाती है । अरूज़ की तराज़ू पर ही ग़ज़ल को कस कर देखा जाता है और कसने वाला होता है अरूज़ी जिसे अरूज़ का ज्ञान होता है । महफिले ग़ज़ल शिक्षक की ओर से सभी छात्रों को पहली कक्षा में आने के लिये शुभकामनाएं कि आप ग़ज़ल की दुनिया में अपना नाम स्‍थापित कर सकें ।

- पंकज सुबीर

महफिले ग़ज़ल

नई कलम - उभरते हस्ताक्षर आज से एक नया स्तम्भ प्रारम्भ करने कर रहा है- "महफिले ग़ज़ल"। यहाँ आप ग़ज़ल लेखन की बारीकियां जान पाएंगे। इस स्तम्भ को हम युवा कथाकार पंकज सुबीर जी की मदद से प्रस्तुत कर रहे हैं।
आशा करते हैं ,आप ग़ज़ल को बखूबी समझ पाएंगे। आप अपनी प्रतिक्रिया देकर सीधे सुबीर जी से सवाल -जवाब कर पाएंगे। आईये हम सब "महफिले ग़ज़ल" का लुत्फ़ उठायें।

- संपादक